भारत देश अपने विशाल ह्रदय में कई प्रकार की बहुलताएँ समेटे हुए है। भूगोल और जलवायु की विविधता ने अनेक प्रकार की जीवन शैली, खान पान व वेषभूषाओं को जन्म दिया है। इन्ही के साथ साथ कथा कहानी, नृत्य, संगीत और कलाओं में भी हमारी बड़ी समृद्ध थाती है। यही बहुलता और वैविध्य हमें भाषाओं में भी नज़र आता है। १२२ से भी अधिक भाषाएँ और १३०० से अधिक मातृ भाषाएँ २००१ की जन गणना में दर्ज की गयी थीं।
क्योंकि भाषा का सीधा सम्बन्ध हमारे व्यक्तित्व, अभिव्यक्ति तथा सामुदायिक पहचान से रहता है, यह मुद्दा हमें न सिर्फ व्यक्तिगत रूप से प्रभावित करता है बल्कि इसके सामाजिक और राजनैतिक पहलुओं से भी हम अनछुए नहीं रह सकते। आज भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जब ६९ साल हो चले हैं और समस्त जनसं
ख्या के समग्र विकास को ले कर कई प्रश्न खड़े हैं, उसमें शिक्षा और भाषा को लेकर जो विषमताएँ उभरी हैं उनका प्रभाव हम सब पर पड़ रहा है। जहाँ एक ओर मध्य वर्ग ने अपनी आजीविका के लिए अंग्रेज़ी भाषा और उसी माध्यम में शिक्षा को गले से लगाया है और अपनी भाषाओँ से कटते जाने के ह्रास को महसूस करने से इंकार कर रखा है वहीँ दूसरी ओर भारतीय भाषाओं में बोलने और शिक्षा पाने वालों को अच्छा रोज़गार मिलने में दिक्कतों के कारण हीन भावना ने ग्रसित कर लिया है और इससे इंडिया और भारत नामक राष्ट्र की दो धारणाओं ने जन्म ले लिया है।
एक ऐसा शिक्षा तंत्र जिससे हर शिक्षित भारतीय को आर्थिक उन्नति के सामान मौके मिलें अभी एक स्वप्न सरीखा है। यह दिक्कत प्राथमिक स्तर की शिक्षा से ही बड़े पैमाने पर सामने आ रही है। राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षणों से यह सिद्ध हो रहा है कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के सरकारी व निजी स्कूलों में जाने वाले ५०% से अधिक बच्चों में पठन क्षमता अपनी कक्षा के स्तर के अनुरूप नहीं है। इस दुष्कर स्थिति को ले कर चिंतन में शिक्षा की गुणवत्ता से ले कर भारतीय भाषाओँ में रोचक पठन सामग्री का अभाव जैसे मुख्य कारक भी सामने आये हैं। अधिकतर बच्चों के पास अपनी पाठ्य पुस्तकों, जिनको पढ़ना उन्हें कठिन बोध होता है, के अतिरिक्त कोई अन्य पठन सामग्री नहीं है। ऐसे बच्चों के लिए धाराप्रवाह पठन एक बड़ी चुनौती बन जाता है जो धीरे धीरे उनके और पुस्तकों के बीच की खाई को इतना बढ़ा देता है कि उसे पाटना न केवल उन बच्चों अपितु शिक्षण तंत्र के लिए भी अत्यधिक कठिन हो जाता है। अनेक भारतीय भाषाओं में मनोरंजक बाल साहित्य का प्रकाशन बच्चों की संख्या को देखते हुए नगण्य ही कहा जा सकता है।
यह बात भारत में कथा कहानी की बहुलता के सन्दर्भ में देखी जाय तो काफी अचंभित करती है। हर भाषा में बच्चों के गीत कवितायेँ और कहानियाँ होने के बावजूद, प्रकाशकों ने इनका फायदा उत्कृष्ट बाल साहित्य का निर्माण करने में नहीं लिया है। जिन भाषाओं को बोली की श्रेणी में रखा गया है, उन भाषाओं का 'साहित्य' लुप्त होने की कगार पर खड़ा है। कथा कहानियों का एक व्यक्ति के भावनात्मक विकास में बहुत बड़ा योगदान होता है और यह बचपन में जीवन को समझने से ले कर भाषा से खेलने तक के आयाम खोलती हैं। अपनी भाषा में कथा कहानियाँ मिलने से बच्चा आनंद सहित पढ़ना सीख सकता है। इससे न सिर्फ उसकी पठन क्षमता का विकास होता है बल्कि उसके सांस्कृतिक व्यक्तित्व को भी मज़बूती मिलती है। अपनी मातृ भाषा में प्रवीण पाठक बन जाने पर अन्य बहसें, तर्क वितर्क सीखने के लिए भी ज़मीन तैयार हो जाती है।

- मनीषा चौधरी